Blog
Home Blog गोवर्धन पूजा (सोहराई पर्व) और गोधन पूजा (भाईदूज) में अंतर और उसका महत्व।

गोवर्धन पूजा (सोहराई पर्व) और गोधन पूजा (भाईदूज) में अंतर और उसका महत्व।

 
डॉ. अजय कुमार शुक्ल पुराध्यापक (हिन्दी विभाग) कलिंगा विश्वविद्यालय (नया रायपुर) छत्तीसगढ़ ajay.shukla@kalingauniversity.ac.in 1 हमारा देश कृषि पर निर्भर है और उसकी असली पह‌चान ग्रामीण संस्कृति है। भारतवर्ष के अधिकांश लोकपर्य कृषि संस्कृति का प्रतिषिय है कृषि संस्कृति में पशुधन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पशुधन में सबसे महत्वपूर्ण है गाय जो हमारी ग्रामीण संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। आमतोर से गोवर्धन पूजा और गोधन पूजा के नाम से भ्रम उत्पन्न हो जाता है जबकि यह दोनों लोकपये अलग-अलग है और दोनों पर्व को मनाने के पीछे अलग- अलग किवदंतियाँ और रस्म प्रचलित है। उत्तर भारत में और खासतौर से पृर्वाचान में ‘गोवर्धन पूजा’ को सोहराई पर्व’ के नाम से जबकि ‘भाईदूज’ को गोधन पूजा के नाम से जाना जाता है। गुगमीण समाज में गाय के प्रति सम्मान व्यक्त करने हेतु एक महत्वपूर्ण लोकपर्व मनाया जाता है। जिसे गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पर्व के साथ-साथ पूर्वाचल के अनेक हिस्सों में सोहराई के नाम से जानते है। यह पारंपरिक लोक त्योहार है जिसे सामान्यतः दीपावली के दूसरे दिन मनाया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार महीने तिथि और मुहूर्त के आधार पर कभी-कभी तीसरे दिन भी..। उत्तर भारत के अधिकांश ग्रामीण हिस्से में धनतेरस के दिन से ही लोग अपनी-अपनी गाय और बैलों के सिंग पर बी लगाते है। गाँव के लगभग सभी लोग अपनी गाय को माँ लक्ष्मी का ही रुप मानते हैं इसीलिए उन्हें नहलाते धुलाते है और उनके सिर पर तिलक लगा कर उनकी पूजा करते है गोवर्धन पूजा या मोहराई के दिन गाय का दूध भी नहीं निकाला जाता है। इस अवसर पर कड़ी कही कुछ गाँव में तीन दिनों का मेला भी लगता है। जहाँ जानवरों की बरीदी-बिक्री के साथ बड़ा मेला भी लगता है जिसे ‘डाइ मेला’ कहते हैं। मोहराई के दिन गाँव के सभी लोग चीरकंवर वाषा की पुरतीकात्मक परतिमा पर एकतिरत होते हैं। यहाँ पर पूजा का काम यादव जाति (जिन्हें अहीर कहा जाता है) के द्वारा किया जाता है। इस पूजा कार्य में गाँव के सभी लोग अपने घर से सात दुधौरा दूध और बावन के घोल से बना हुआ पुआ) कच्चा दूध, सिदर, अक्षत एवं अन्य पूजा सामग्री लेकर आते है ।साथ ही साथ एक मिट्टी से बना हुआ घोड़ा हाथी भी..।

वैसे यह अपनी सामध्ये क्षमता के ऊपर आधारित रहती है क्योंकि गाँव के जो लोग आर्थिक रूप से उतने मजबूत नहीं होते हैं। वे बीरकुवर बाबा के लिए परसाद के रूप में गुड़, बावल और बताशा आदि भी बढ़ाते है। जबकि अत्यधिक समर्थ लोग मुर्गा या बकरे की बलि चढ़ाते है और शाकाहारी लोग मि‌ट्टी की मृति को बढ़ाकर परंपराओं का पालन करते रहे हैं। पूजा के दौरान अहीर जाति के लोगों के द्वारा चीरकुंवर बाबा की प्रतिमा को कच्चे दूध से नहलाया जाता है। फिर बकरा और सुअर को वहाँ पर उपस्थित गो माता के पास आशीवांद लेने के लिए बार-बार भेजते हैं। उम समय गांव के हरिजन जाति के लोग मगन होकर ढोल बजाते हैं। इस दौरान श्रद्धालु अहीर जाति के लोगों के द्वारा नृत्य भी किया जाता है जिसे क्षेत्र‌ीय भाषा में डाढ़ बेलना’ भी कहा जाता है। पूजा के अंतिम बरण में बीरकंवर बाधा की परतिमा के समक्ष बकरे की बलि बढ़ायी जाती है और उसके रक्त से बाषा का तिलक भी किया जाता है कभी कभी पूजा करने वाले पुजारी उभ रक्तरुपी प्रसाद का सेवन भी करते हैं। झारखण्ड के अधिकांश हिस्सों में सोहराई पर्व को आस्थापूर्वक मनाया जाता है। मोहराई के दूसरे दिन गोधन पूजा का आयोजन किया जाता है जिसे शहरी संस्कृति में भाई दूज के नाम से भी जाना जाता है इस दिन गोधन कटने की परंपरा है। जय बहने सुबह से उपयाम रहती है और गाय के गोबर का बोका और उस पर भिन्न-भिन्न आकृति बनाकर पारंपरिक गीत गाते हुए लकड़ी के मूसल से उसे कूटती है। इस दिन गांव-मुहल्ले में घर के बाहर महिलाएँ सामूहिक रूप से उपस्थित होकर गोबर से बौकोर आकृति बनाती है. जिसमें यम और यमी की गोबर में ही प्रतिमा बनाई जाती है। इसके अतिरिक्त माप बिच्छु आदि की भी आकृति बनाई जाती है। गोबर से बनी इस आकृति के भीतर बना, ईंट, नारियल, सुपारी और रेगनी (कोटा) भी रथ दिया जाता है, जिसे बहने अपनी जीभ में बुभाकर अपने भाइयों को कोसती है। पहले वे पारंपरिक लोकगीत गाते हुए अपने भाईयों को सरापती श्राप देती है लेकिन फिर जिस जीभ से उन्होंने अपने भाईयों को श्राप दिया, पश्चाताप स्वरूप उसी जीभ पर रंगनी ( एक विशेष प्रकार का कांटा। बुचुभोती है। उसके बाद भाईयों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की कामना करती है। महिलाएं पहले गोबर से बनी बौकोर आकृति की पूजा करती है फिर उसे मुमान से कूटते हुए गीत गाती है। इन्हें कूट लेने के बाद उसमें डाले गए बने को निकाल लिया जाता है और फिर सभी बहने अपने-अपने भाइयों को तिलक लगाकर उसे गुद्र के साथ खिलाती है कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की दवितीय तिथि को मनाए जाने वाले भैया दूज’ को उत्तर भारत में आमतौर गोधन पूजा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन उत्तर भारत के कई राज्यों में बहने अपने भाइयों को शाप देने की अनोखी लोकपरम्परा को निभाती है।

इस परम्परा के पीछे मान्यता है कि दवितीया के दिन भाइयों को गालियां और शाप देने से उन्हें यम (यमराज) का भी भय नहीं होता और अपने भाइयों के मृत्यु का डर नहीं होता। गोधन को ‘यम द्वितीया” भी कहा जाता है इस पूजा के बाद बहने “भाईयों” की कलाई में रुई का रक्षा सूत्र बांधकर, उन्हें प्रसाद गुड़-चना खिलाती है फिर सब कोई एकसाथ बैठकर दलपुड़ी और रसियाव (बीर) खाते हैं। सामान्य तौर से उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और उसके सीमावर्ती राज्य में प्रचलित इस लोकपर्व से जुड़ी हुयी और अन्य किवदंतियां भी प्रचलित है। इस आलेख के माध्यम से जिज्ञासु लोगों को दीपावली के पश्चात ग्रामीण क्षेत्र में प्रचलित पारंपरिक पर्व और उससे जुड़ी हुयी. मान्यताओं से परिचित कराना था। ऐसे अनेक लोकपर्व के माध्यम भारतीय संस्कृति पर प्रकृति एवं कृषक सभ्यता के प्रभाव को बेहतर से समझा जा सकता है और लोकसंस्कृति पर शोधकर्ताओं को बेहतर मदद मिल सकती है।

Kalinga Plus is an initiative by Kalinga University, Raipur. The main objective of this to disseminate knowledge and guide students & working professionals.
This platform will guide pre – post university level students.
Pre University Level – IX –XII grade students when they decide streams and choose their career
Post University level – when A student joins corporate & needs to handle the workplace challenges effectively.
We are hopeful that you will find lot of knowledgeable & interesting information here.
Happy surfing!!

  • Free Counseling!