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दोना-पत्तल

पहले गाँव-घर में शादी की दावत हो या कोई भी सामूहिक भोज, दोना-पत्तल और कुल्हड़ के बिना सामूहिक रुप से खाने की कल्पना भी नहीं की जाती थी। जैसे-जैसे समय बढ़ रहा है, सामूहिक भोज के समय इस महत्वपूर्ण और परंपरागत हरे पत्तों से बनी दोना-पत्तल का प्रचलन धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है।आधुनिकता की चकाचौंध, दिखावा और बुफे सिस्टम की वजह से हमारी यह पारंपरिक विरासत,आज विलुप्ति के कगार पर खड़ी है। अब चारों तरफ दोना-पत्तल की जगह थर्माकोल के प्लेट और कुल्हड़ के जगह प्लास्टिक के डिस्पोजल गिलास दिखाई पड़ते हैं।

कुछ दिनों पहले एक प्रसिद्ध मेडिकल रिसर्च पेपर में यह प्रमाणित किया जा चुका है कि थर्माकोल या प्लास्टिक के गिलास में खाना-पीना स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है। उसके ऊपर जिन रसायनों का लेप होता है, वह गंभीर बीमारी कैंसर को उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार हैं। पर्यावरण के जानकार भी अब खुलकर बोलते हैं कि वह प्रकृति के लिए नुकसानदेह है, क्योंकि उन्हें नष्ट करना बहुत मुश्किल है। वह मिट्टी में मिलकर मिट्टी की उर्वरता समाप्त करने के लिए भी जिम्मेदार हैं। जबकि दोना-पत्तल को मिट्टी में दबा दिया जाता है, जिससे वह खाद के रुप में तैयार हो जाता है, जो पर्यावरण और कृषकों के लिए बहुत लाभप्रद है।

ग्रामीण क्षेत्र में ‘पलाश’ के पत्तों से दोना-पत्तल बनाने की पुरानी परंपरा रही है। सरगुजा और छोटा नागपुर क्षेत्र में सरई (सालवृक्ष) के पत्तों से, बस्तर में सरगी के पत्तों से दोना पत्तल बनाया जाता है, जबकि दक्षिण भारत में केले के पत्तों पर खाना खाया जाता है।जानकार लोग बताते हैं कि संपूर्ण भारतवर्ष में हजार से अधिक वनस्पतियों के पत्ते से दोना-पत्तल का निर्माण किया जाता है। वनोपज की बिक्री कर अपना जीवन निर्वाह करने वालों के साथ-साथ लघु उद्योग के लिए यह एक प्रमुख आधार स्तंभ रहा है।

आज भी शहर हो या गाँव, कई इलाकों में पूजा-पाठ के लिए हरे पत्तों के दोना-पत्तल को ही स्वीकार किया जाता है, क्योंकि यह पवित्र माना जाता है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र के बड़े-बुजुर्ग आज भी घर के किसी उत्सव या भोज में हरे पत्तों से बने दोना-पत्तल में ही खाना पसंद करते हैं, क्योंकि यह शुद्ध, सात्विक और औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है। पारंपरिक रुप से पलाश के पत्तल पर भोजन करने को बहुत फायदेमंद माना गया है। प्राचीन वैदिक परंपरा के अनुसार पलाश के पत्ते पर भोजन करने से वही फायदा है, जो सोने के बर्तन में भोजन करने से होता है। पाचन तंत्र संबंधी रोग वाले व्यक्ति भी को इस पत्तल पर भोजन करने की सलाह दी जाती है।

पिछले सप्ताह बीबीसी के न्यूज में एक खबर आई कि जर्मनी की एक कंपनी दोना-पत्तल बना रही है। पर्यावरण के मित्र के रुप से उसकी जबर्दस्त मार्केटिंग की वजह से वे माँग के अनुसार खपत नहीं कर पा रहे हैं और बेशुमार पैसा कमा रहे हैं। मार्केटिंग की प्रसिद्ध नेटवर्क कंपनी अमेजन के वेबसाइट पर भी दोना-पत्तल और कुल्हड़ बिक्री के लिए उपलब्ध है। कहने का तात्पर्य है कि हमारे पारंपरिक दोना-पत्तल की इज्जत भले अपने देश में नहीं,लेकिन विदेशों में हो रही है और हमें उसकी कद्र तक नहीं है।

उम्मीद है कि इस संक्षिप्त आलेख को पढ़ने के बाद आप अपने घर के किसी भी कार्यक्रम में थर्माकोल के प्लेट और प्लास्टिक डिस्पोजल गिलास की बजाए दोना-पत्तल में ही खाना परोसेंगे और कुल्हड़ में पानी और चाय पीने के महत्व को समझेंगे। आप कहीं भी रहते हों, आज भी आपके शहर के साप्ताहिक बाजार में आपको दोना पत्तल बनाती हुयी स्त्रियाँ दिखाई पड़ जाएँगी। लगभग प्रत्येक शहर और गाँव में आज भी दोना-पत्तल और कुल्हड़ उपलब्ध है। जरूरत है तो सिर्फ उसे पुनः प्रचलन में लाने की और अपनी प्रकृति और अपनी परंपरा को बचाने के साथ-साथ ग्रामीण कुटीर उद्योगों को बढावा देने का , यह हम सभी के लिए महत्वपूर्ण पहल होगी।

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