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भारत में शिक्षा की स्थिति

By
Dr. Abhishek Kumar Pandey
Assistant Professor
Department of Botany, Kalinga University
 

टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में हाल में ही अपनी लिस्ट जारी की। यह रैंकिंग विश्व  में मौजूद तमाम शैक्षणिक संस्थानों को उनकी गुणवत्ता, शोध, उद्धरण और औद्योगिक  ज्ञान विज्ञान और तकनीकी लेन देन के आधार पर करती है I यह रैंकिंग विश्व में 92 देशों के 1200 विश्वविद्यालयों को लेकर की गई जिसमें भारत भी शामिल है दुर्भाग्य की बात है इस रैंकिंग में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय की सूची में 300 वे स्थान तक नहीं है भारत का इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस बेंगलुरु 350 से 400 सेगमेंट वाली रैंकिंग में आया है अन्य कोई भी शैक्षणिक संस्थान इस रैंकिंग में नहीं है भारत की तमाम आई आई टी और आईआईएम जैसे संस्थान इस लिस्ट में कहीं नहीं है इस बात से पता चलता है कि भारत शिक्षा के क्षेत्र में कितना पिछड़ा हुआ है जबकि भारत में 342 राज्य विश्वविद्यालय 125 डीम्ड यूनिवर्सिटी तथा 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं इस तरीके से भारत में 513 सरकारी विश्वविद्यालय हैं I इसी तरीके से भारत में मार्च 2019 तक 333 निजी विश्वविद्यालय थे, देश में निजी कॉलेजों और संस्थानों की गिनती कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ती चली जा रही है दैनिक भास्कर की खबर के अनुसार इस समय देश में लगभग 15 लाख से ज्यादा स्कूल 41935 कॉलेज है फिर भी आखिर ऐसा क्या कारण है कि हम लगातार शिक्षा के क्षेत्र पिछड़ते चले जा रहे हैं I पिछले 4 सालों के दौरान सरकार ने शिक्षा को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है सन 2019-20 में भारत सरकार ने शिक्षा के लिए 94,853.64 का करोड़ का बजट जारी किया जो 2020-21 में बढ़कर  99,300 करोड 2021-22 में  थोड़ा घटकर 88,002 करोंङ रुपए हो गया सन 2022-23 के सत्र में यह बढ़कर 1.12 लाख करोड़ रुपए हो गया  इतना खर्च करने के बावजूद भी भारत और कोई भी शैक्षिक संस्थान इस रैंकिंग में अपना स्थान नहीं बना पाया वास्तव में देखा जाए तो इतना बजट खर्च करने के बाद भी हम शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं इसका प्रमुख कारण शिक्षक शिक्षक और विद्यार्थी का सही अनुपात में न  होना है भारत में प्रति शिक्षक जो विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे हैं उनके ऊपर 24 छात्र हैं, विश्वविद्यालयों में कॉलेजों में छात्रों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है लेकिन उस अनुपात में न शिक्षक बढ़ रहे हैं ना इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत हो रहा है देश के कई विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं के बुरे हाल हैं देश के कई विद्यालय जिनमें जैव प्रौद्योगिकी एक प्रमुख विषय के तौर पर पढ़ाया जाता है वहां पीसीआर ऑटोक्लेव लैमिनार एयर फ्लो जैसे जरूरी उपकरण भी नहीं है इसी तरीके से कई सारे विश्वविद्यालयों में एक डिपार्टमेंट एक शिक्षक के भरोसे ही चल रहा है  देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों की संख्या भी लगातार कम हो रही है सन 2013 में देश में 1367535 शिक्षक हैं जोकि 2017 में घटकर 1284775 रह गए हैं । एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ही 6602  प्रोफेसरों के पद खाली पड़े हुए हैं ।

                शैक्षणिक बजट का एक बड़ा हिस्सा हर साल खर्च ही नहीं हो पाता।  इसी तरीके से भारत मैं चलने वाले तमाम शोध मानक गुणवत्ता न होने की वजह से नेचर और स्प्रिंगर जैसी शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित नहीं हो पाते । भारत में शैक्षणिक संस्थानों के उन्नत ना हो पाने का एक प्रमुख कारण यह भी है सरकार जहां एक तरफ आईआईटी आईआईएम आईआईएससी जेएनयू और बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों को दिल खोलकर बजट प्रदान करती है वही तमाम सारे विश्वविद्यालय अपने कर्मचारियों को तनख्वाह बांटने के लिए भी तरसते रहते हैं। देश के गिने-चुने संस्थान अपने सर्वश्रेष्ठ होने का तमगा लटकाए घूमते रहते हैं लेकिन देश के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित विश्वविद्यालय और कॉलेजों की स्थिति दिन पर दिन बदतर होती चली जा रही है तमाम सारे संस्थान जिनके पास तमाम सारी सुविधाएं हैं वह अपनी सुविधाएं और तकनीक अन्य विश्वविद्यालयों से साझा नहीं करते इसकी वजह से समावेशी शिक्षा का सपना सपना बनकर ही रह जाता है Iभारत में शोध का स्तर भी लगातार गिर रहा है एक अध्ययन को कई बार किया जा रहा है इसी तरीके से अपने अध्ययन को छपवाने के लिए प्रिडेटर पत्रिकाओं का सहारा लिया जा रहा है  प्रीडेटर पत्रिका ऐसी शोध पत्रिकाएं होती हैं जो कुछ प्रकाशन शुल्क के साथ बगैर मूल्यांकन किए अध्ययन को प्रकाशित कर देती है विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने लगभग 8000 ऐसी पत्रिकाओं के प्रकाशन पर रोक लगा रखी है परंतु इनकी संख्या दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही है इसीलिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने शोध पत्रिकाओं की अधिकारिक सूची जारी की है और यह आवश्यक किया है कि शोध पत्र अब सिर्फ यूजीसी लिस्ट में आने वाले जनरल में ही प्रकाशित किए जाएं । इन सबके बाद फर्जी तरीके से पी एच डी और मास्टर की डिग्रियां बांटी जा रही है। निजी और सरकारी संस्थाओं में आपस में सामंजस्य की कमी है। उनके द्वारा किए गए एमओ‌यू धरातल पर नहीं दिखते । शिक्षकों के ऊपर शिक्षणेत्तर कार्यों का अनावश्यक दबाव रहता है। नीतियां बनाने से लेकर शिक्षकों की वैकेंसी निकालने वाले लोग बाबू और अफसर जिनके ऊपर शिक्षा को सुधारने की जिम्मेदारी है वो शिक्षाविद् नहीं है और अपने अनाप शनाप फैसले लेकर अंत में अपनी ही किरकिरी कराते रहते हैं। सरकार में शिक्षा के फैसले बगैर शिक्षाविद् के लिए जाते रहे हैं। जिसकी वजह से शिक्षकों की नियुक्तियां कोर्ट में कई कई साल लटके रहती है । जब तक शिक्षकों को अपने अनुसार कार्य और शोध करने की स्वतंत्रता नहीं होगी जब तक निजी और सरकारी संस्थाओं मिलकर काम करना नहीं सीखेंगी तब तक व्यवस्था में कोई आमूलचूल बदलाव होने की कोई उम्मीद नहीं है ।

 

 

 

 

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