Assistant Professor - Department of Science Kalinga University, New Raipur
आज का युग मानसिक तनाव का युग है, मानसिक तनाव मन में उत्पन्न होता है। इसका कारण वर्तमान की परिस्थितियां और मनुष्य की असीमित कामनाएं हैं। पुरातन समय में लोहार का बेटा लोहार होता था, किसान का बेटा किसान। व्यक्ति अपने गांव में ही रोजगार करता था तब आर्थिक विकास की उतनी चकाचौंध वर्तमान के मुकाबले नहीं थी किन्तु संतोष पूर्ण जीवन था जिससे तनाव उत्पन्न नहीं होता था या कम से कम उत्पन्न होता था। व्यक्ति अपने पैतृक स्थान में रोजगार करता था अपना पैतृक रोजगार करता था जिससे तनाव कम से कम उत्पन्न होता था क्योंकि उसे नया कुछ सीखना नहीं होता था और जो व्यवसाय वो अपनाता था उसमें उसकी विशिष्टता होती थी जिससे उसे कम से कम मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता था।
किन्तु अपना पैतृक स्थान छोड़ना और अपना पैतृक व्यवसाय छोडकर नया व्यवसाय चुनना तनाव जन्य होता है। नया व्यवासाय चुनने में व्यक्ति को अधिक तनाव लेना पड़ता है जो कि तनाव का और तनाव जन्य बीमारियों का प्रमुख कारण है। मनुष्य एक मन साहित, मननशील प्राणी है अतः उसके मन मे विचारों और इच्छाओं का उठना स्वाभाविक है। इन इच्छाओं अपेक्षाओं की पूर्ति जब नहीं हो पाती है तब मन में तनाव उत्पन्न होता है
भगवान् बुद्ध ने भवरोग का कारण इच्छा को माना है। मनोविज्ञान भी मानता है कि दमित वासनाएं या अतृप्त इच्छाएं मानसिक रोग का कारण हैं। परन्तु इच्छा के बिना मनुष्य अपना लक्ष्य भी निर्धारित नहीं कर सकता है, तो क्या कोई ऐसा मार्ग भी है जो सद्इच्छाओं की पूर्ति भी निश्चित करे और इच्छाओं की पूर्ति न होनें पर मानसिक तनाव और मनसिक तनाव जन्य बीमारियों को भी उत्पन्न न करे। श्रीमद्भगवद्गीता योग का ग्रंथ है और उसमें अनासक्त कर्म के बारे में और उसके लाभ के बारें में विस्तार से वर्णन है तथा आसक्ति पूर्ण कर्मों से उत्पन्न दोषों का भी वर्णन मिलता है, इसके लिए भगवान् श्री कृष्ण नें श्रीमद्भगवद्गीता में सांख्य योग नामक अघ्याय में अनासक्त कर्म करने का उपदेश दिया है।
भगवान श्री कृष्ण कहते है कि अनासक्त भाव से किये गए कर्मों से नए कर्म बंधन नहीं बंधते और साथ ही पुरानें कर्मों के बंधन भी समाप्त होते जाते हैं। इस तरह अनासक्त भाव से किए हुए कर्म मानसिक तनाव और मानसिक तनाव जन्य समस्याओं को उत्पन्न नहीं करते हैं।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ श्रीमद्भगवद्गीता २-४८॥
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ श्रीमद्भगवद्गीता २-४७॥
अर्थात् कर्म कुशलता पूर्वक करो और फल की चिंता या आशा न करो। फल की आशा से तनाव उत्पन्न होता है। आशा की पूर्ति न हो तो भी तनाव उत्पन्न होता है। जिससे मन में क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से बुद्धि का नाश होता है। और बुद्धि के नाश होने से जीवन का नाश हो जाता है।
महर्षि पतंजलि ने भी योग की परिभाषा देते हुए कहा है कि चित्त (मन) की वृत्ति के निरोध (रूक जाने) को योग कहते है। भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में समत्व को योग कहा है अर्थात् चित्त की अविचल स्थिति को योग कहा है। चित्त की वृत्तियॉ चंचल होती है। मन चंचल स्वभाव का होता है। संकल्प विकल्प उसका धर्म है। यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियों को अपनी ओर बलात् खींच लेता है जिससे मन में असंयम होता है और असंयम से अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है।
मनोविज्ञान अच्छे तनाव को यूस्ट्रेस और खराब तनाव को डिस्ट्रेस की संज्ञा देता है। डिस्ट्रेस या खराब मानसिक तनाव के कारण अनेकानेक मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती है, जैसे दुश्चिंता (एंग्जायटी) आदि साथ ही साथ अनेक मनोकायिक रोगों की भी उत्त्पति होती है जैसे मधुमेह (डायबिटीज) उच्चरक्तचाप (हाइ-ब्लडप्रेशर) त्वचा रोग हृद्य रोग लम्बर पेन (लम्बेगो) आदि। इन मनोकायिक रोगों का कारण मानसिक तनाव होता है और इनके लक्षण रोग के रूप में शरीर पर दिखाई देते हैं।
योग के अभ्यास के द्वारा मानसिक तनाव को कम किया जा सकता है। योगाभ्यास से एड्रिलिन नामक हार्मोन के स्राव को संतुलित किया जा सकता है, जो तनाव की अवस्था में स्रावित होता है। साथ ही डोपामिन जैसे हार्मोन जो कि मानसिक प्रसन्नता के लिए उत्तरदायी है के स्राव को बढाया जा सकता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ श्रीमद्भगवद्गीता २-६२॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ श्रीमद्भगवद्गीता २-६३॥
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ पतंजलि योगसूत्र १.२॥
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ श्रीमद्भगवद्गीता २-४८॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ श्रीमद्भगवद्गीता ६.३४॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसमं मनः ॥ श्रीमद्भगवद्गीता २-६०॥
विभिन्न आसनों के माध्यम से शारीरिक दृढ़ता आती है जिससे मांसपेशियों के साथ तंत्रिका तंत्र मजबूत होता है, जिससे मानसिक तनाव को कम किया जा सकता है तनाव जन्य परिस्थितियॉं उत्पन्न होने पर भी योग आसन का अभ्यास तनाव उत्पन्न नहीं होने देता। आसनों के माध्यम से शारीरिक स्वास्थ्य मिलता है और शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा हो तो मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा होता है क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
भक्ति योग के माध्यम से व्यक्ति ईश्वर पर श्रद्धान करना सीखता है जिससे तनाव जन्य परिस्थितयों में भी व्यक्ति मानसिक तनाव ग्रस्त नहीं होता है और अन्य सभी परिस्थियों में मानसिक तनाव से मुक्त रहता है।
कर्म योग के माध्यम से कर्मों को कुशलता पूर्वक करना सीखता है जिससे अनासक्त भाव से कर्मों को करने से तनाव से मुक्त रहा जा सकता है।
प्राणायाम के माध्यम से मन के वेग को रोका जा सकता है तथा अनियंत्रित विचारों से मुक्ति पायी जा सकती है।
नेति, कुंजल, त्राटक आदि मानसिक स्थिरता को जन्म देते हैं। धारणा और ध्यान के माध्यम से मन की चंचलता को रोककर एक स्थान पर मन को केन्द्रित करना सीखा जाता है जिससे तनाव की समाप्ति होती है तथा मन आनंद से भर जाता है। योगनिद्रा, अंतरमौन, अजपाजप आदि क्रियायों के द्वारा मानसिक और शारीरिक तनावों से मुक्ति पायी जा सकती है। इस तरह योग के माध्यम से मानसिक तनाव और मानसिक तनाव जन्य व्याधियों से मुक्ति पायी जा सकती है।
मानसिक तनाव का दवाओं में स्थायी समाधान नहीं मिलता है, योग स्थाई समाधान की दिशा में रामबाण की तरह कार्य करता है। योग का अभ्यासी तनाव जन्य परिस्थियों में प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ तनाव देने वाली परिस्थियों में तनाव रहित हो अपना जीवना जीता है। अतः कहा जा सकता है योग मानसिक तनाव को कम करने की उत्तम कला या विद्या है।