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मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों मे सामाजिक यथार्थ

डॉ श्रद्धा हिरकने
सह.प्राध्यापक
हिन्दी विभाग
कलिंगा विष्वविद्यालयए रायपुर ;छण्गण्द्ध

 

सामाजिक यथार्थ से तात्पर्य, ‘समाज से संबंधित किसी भी घटनाक्रम का ‘‘क्यों का त्यों’’ चित्रण है। दूसरे शब्दो मे समाज मे घटित होने वाली सच्ची घटनाओं का यथार्थ चित्रण ही सामाजिक यथार्थ कहलाता है। यथार्थ शब्द का प्रयोग सत्य, वास्तविक, वस्तुस्थिति आदि कई अर्थो मे किया जाता है । यथार्थ के स्वरूप व चरित्र के बारे मे अनेक साहित्य चिंतकी और मनीषियों के द्वारा अपने – अपने मन प्रकट किए गए है । साहित्य मे वह सभी यथार्थ माना जाता है जिसमे साहित्यकार की स्वयं की अनुभूति होती है । सामाजिक यथार्थ से ही साहित्य मे अभिरूचि उत्पन्न होती है । साहित्य और समाज एक दूसरे के परिपूरक है । साहित्य समाज मे सामग्री ग्रहण कर हमें मार्गदर्शन कराता है । साहित्यकारों ने अपने साहित्य मे समाज मे व्याप्त संघर्ष, सामाजिक विषमता, दरिद्रता, जीवन की असंगतियाॅ व सामाजिक दर्पण को विशेष रूप से उजागर करते है । सामाजिक यथार्थ यह युगीन परिस्थितियों के आधार पर बदलती रहती है ।

            मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों मे सामाजिक रूप से यथार्थता का चित्रण प्रस्तुत किया है । मैत्रेयी पुष्पा का मानना है कि स्त्री की कोई जाति या धर्म नहीं होता है वह जिस घर मे जन्म लेती है वह उसकी जाति व जहाॅं ब्याही जाति है वही उसका धर्म होता है । यह एक लैंगिक भेद ही है । इसी कारण मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों मे स्त्रियों द्वारा मांगे गये समय को यथार्थ रूप से प्रदर्शित किया है । उन्होंने अपने विचार अपनी कृतियों के माध्यम से पाठकों के सम्मुख रखना चाहा है जिससे पाठकों को सामाजिक रूप से समाज से रूबरू कराया जा सके ।

            आमतौर पर स्त्रियाॅ अपनी आपबीती कहते या लिखते हुए झिझकती है, वह अपने मन की सच्चाई को खुलकर नहीं बता पाती है उन्हें डर होता है कि समाज मे उनकी बदनामी या समाज से निष्काष्ति न कर दे । मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा उन घुटन का परिणाम है जो शोषण का प्रतिकार करना है जिसमे स्त्रियों को केवल शारीरिक संतुष्टि का साधन माना जाता है, इन्हीं अत्याचारों के खिलाफ सामाजिक न्याय की माॅंग की है।

            ‘अल्मा कबूतरी’ मे मैत्रेयी ने कबूतरा जनजाति की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है । कबूतरा हमारे देश की ऐसी अनुसूचित जनजाति है जिनके नाम के साथ ‘अपराधी’ का टैग जुड़ा होता है । हमारा सभ्य समाज इन्हें अपराधी का टैग देकर बड़ी आसानी से समाज से फैंक देता है और चुपचाप समाज के हाशियों पर डेरा लगाए सदियाॅ गुजार देते है । इनके पास इनकी प्राथमिक जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई संसाधन नहीं होते जिसके कारण इन्हें चोरी -डकैती का रास्ता चुनना पड़ता है । अर्थात चोरी करना इनका शौक नहीं मजबूरी है, लेकिन सभ्य समाज इनकी चोरी को शौकिया पेशा मानकर इन्हें समाज से खदेड़ने का बहाना ढॅूढ लेता है । इन असभ्य अनुसूचित जनजातियों के अन्दर सभ्य समाज मे शामिल होने की बेचैनी एवं छटपटाहत दिखती है, लेकिन सभ्य समाज इन्हें अपने समाज मे शामिल नहीं होने देना चाहता क्योंकि उन्हें उनका भविष्य खतरे मे नजर आने लगता है, उन्हें लगता है कि कहीं उनकी हुकूमत उनसे छिन न जाए । वे जिन परशासन करते है कहीं उन्हे उन्हीं का मुलाजिम न बनना पड़े, इसलिए कज्जा (सभ्य समाज) चाहता है कि कबूतरा कबूतरा ही बने रहे, कज्जा बनने की कोशिश न करे, इसके लिए कज्जा पुरजोर कोशिश करता है । यही कारण है कबूतरा पुरूष या तो जेल मे रहता है या जंग लमे और स्त्रियाॅ शराब की भट्टियों पर या कज्जा पुरूषों के बिस्तरों पर ।

            अपने विधागत ढाॅंचे मे ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ की विशेषता यह है कि इसका मूल चरित्र आत्मकथा और जीवनी के तालमेल से तैयार ‘साॅंेझी कथा’ का है-कस्तूरी देवी की जीवनी और मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा के संयोग से बुनी गई साॅंझी कथा है । साॅंझी कथा की रचना का बुनियादी नियम यह होता है कि इसमे कथ्य व्यक्ति और कथाकार का जीवन आपस मे इतना संश्लिष्ट रूप से गुथा होता है कि दोनों की परस्पर क्रिया – प्रतिक्रिया मे जीवन विकास की कथा चलती है । हिन्दी मे शिव रानी देवी द्वारा लिखी गई प्रेमचंद की जीवनी ‘‘प्रेम चंद घर में’’ साॅंझी कथा का अन्यतम उदाहरण है । ‘‘कस्तूरी कुंडल बसै’’ मे कस्तूरी देवी और मैत्रेयी पुष्पा का जीवन आपस मे इतना संश्लिष्ट रूप से गुथा हुआ है कि जीवन तो माॅं का है लेकिन जीना बेटी का है । यहाॅ माॅं के जीवन की दिशा बेटी के जीवन की दिशा निर्धारित करती है । माॅं के जीवन संघर्षो के मध्य परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया द्वारा बेटी के व्यक्तित्व का निर्माण होता है । मैत्रेयी पुष्पा डेढ वर्ष की आयु मे पिता का देहांत होने के कारण मैत्रेयी पुष्पा की माॅ नौकरी पर चली जाती थी तो मैत्रेयी गाॅंव की पुरोहितन – खेरापतिन के साथ दिनभर गीत गाती फिरती थी, खेरापतिन दीदी जहाॅ भी जाती, मैत्रेयी पुष्पा उसके साथ – साथ रहती । पहले पढ़ाई लिखाई मे बिल्कुल रूचि नहीं थी । माॅंव की पुरोहितन खेरापतिन, जिसके साथ कंठ मे सैकड़ो कस्तूरी की बेटी मैत्रेयी के लिए विलक्षण स्त्रिी है, वह स्कूल छोडकर दिनभर बुढिया जिसके साथ कंठ मे सैकड़ो कस्तूरी की बेटी मैत्रेयी केे लिए विलक्षण स्त्री है, वह स्कूल छोड़कर दिन भर बुढ़िया के आगे पीछे घूमती है । खेरापतिन भी इन दिनों अपनी गायिकी का नया वारिसा खोज रही है और उसकी तलाश मैत्रेयी पुष्पा पर आकर ठहर जाती है । क्योंकि बिना भाई की बहन अपने पिता की खेती पर ताउम्र रहेगी, ब्याही जाने के बाद उसका पति खेती का वारिस बनेगा । इनकी प्राईमरी शिक्षा सिकुर्रा गांव मे हुई । इसके बाद मैत्रेयी पुष्पा की पूरी शिक्षा की झांसी मे सम्पन्न हुई । एक साल कन्या गुरूकुल मे भी शिक्षा प्राप्त की । आरंभ मे पढ़ाई मे बिलकुल रूचि नहीं थी परन्तु माता के कठोर व्यवहार के कारण मैत्रेयी पुष्पा को मन मारकर स्कूल जाना पड़ता था ।

            हर रचनाकार की रचना अपनी परिस्थितियों की देन होती है । उनकी रचनाओं के संवेदनात्मक उददेश्य अनिवार्य रूप से जीवन की परिस्थितियों और जीवन के प्रश्नों से संबंधित होते हैं । मैत्रेयी पुष्पा स्वयं बुंदेलखंड अंचल के अभावग्रस्त जीवन से सम्बद्ध रही है और ग्रामीण जीवन के जीवन को इन्होंने निकट से देखा है, भोगा है । मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य मे पुरूष प्रधान व्यवस्था के प्रति आक्रोश का भाव जगह जगह झलकता है परन्तु उसके पीछे कोई नारीवादी आग्रह नहीं दिखाई पड़ता । डाॅ.कांति कुमार जैन लिखते है -ःः मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा कलाकृति से बढ़कर जीवन की घुटन है, जो जिन्दगी के धूल-धक्कड़ से लड़ते हुए गिरती है और गिरकर फिर उठने का हौसला रखती है । वह पिछड़े हुए रूढ़ि जर्जर, पुरूष अनुशासित भारतीय समाज मे अपने औरत होने का भागमान मना रही है ‘जो कहॅूंगी, सच कहॅूंगी’ के हलफ़िया बयान के साथ ‘तिरिया जनम झन देहु’ की कातर प्रार्थना को नकारते हुए , वह स्त्री होने की अपनी जैविकता से न तो क्षमा – याना की मुद्रा मे है, न ही अपनी जैविकता को लेकर भगवान को कोसती है।’’2 नारी शोषण को मैत्रेयी पुष्पा ने व्यापक सामाजिक विधान जोड़कर चित्रित किया है । उनके साहित्य मे नारी पात्र मुख्य रूप से उभरकर सामने आये हैं जो अपने – अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन नारी पात्रोें के माध्यम से मैत्रेयी पुष्पा ने नारी शक्ति के नये नारी मुख्य रूप से उभरकर सामने आये हैं जो अपने अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन नारी पात्रों के माध्यम से मैत्रेयी पुष्पा ने नारी शक्ति के नये आयाम खोजने का प्रयास किया है । अपनेसाहित्य मे मैत्रेयी जी केवल कोरे यथार्थ को सामने रखकर नहीं चली अपितु आदर्श और कल्पना की भी यथासंभव संयोजना की है ।

            आर्थिक बंदीगृह से मुक्त नहीं होती तब तक नारी स्वतंत्रता की रक्षा करना व्यर्थ है । इसीलिए मैत्रेयी की नारी पात्राएॅ आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए संघर्षरत कहीं जा सकती है । मैत्रेयी पुष्पा नारीस्वतंत्रता की प्रबंल समर्थक रही है, उनका विचार है कि नारियों का शोषण नहीं होना चाहिए, घर और बाहर की नारियों की स्वतंत्रता मिली चाहिये । पुरूषों को और नारी को स्वतंत्रस्तर पर प्रतिष्ठित करते हुए उनके व्यक्तित्व के विकास का यज्ञ पूर्ण करना चाहिये ।

निष्कर्ष – 

कुल मिलाकर हम कह सकते है कि मैत्रेयी पुष्पा जी के उपन्यासों से यह बात साफ – साफ स्पष्ट दिखता है कि उनकी प्रवृत्ति नारी पात्रों के चित्रांकन कि ओर विशेष रही है । अपने हृदय की कामलतम कल्पनाओं की प्रतिछाया नारी पात्रों मे देखने की कोशिश करती है । वे नारी के व्यक्तित्व को संकुचित दृष्टि से नहीं देखती , सदियों से नारी पुरूष कि दासी के रूप मे पीड़ित है जिससे उसका आत्मसम्मान लुप्त सा हो गया है । पुष्पा जी मानती है कि नारी मे भी वही हौसला व उमंग किलकारियाॅ मारती रहती है जो पुरूष मे । अतः नारी को समानअवसर प्रदान करना होगा , तभी उसकी जीवन का यथार्थ सामने आ पाएगा, इसी चेतना को जागृत करने हेतु स्त्री-विमर्श भी अहम भूमिका निभा रही है और अंत मे यह दो पंक्ति दृष्टव्य है –

नारी जब भी चुप रही है, तब दानवों का भार बढ़ा ।

रूप लिए जब दुर्गा का, तब महिषासुष का संहार हुआ ।।

संदर्भ सूची –

  1. मनुस्मृति, अध्याय 3/56
  2. हजारी प्रसाद द्विवेदी: वाणभट्ट की आत्मकथा, पृष्ठ 110
  3. महादेवी वर्मा: श्रृंखला की कड़ियाॅं, पृष्ठ 11-12
  4. मैत्रेयी पुष्पा: खुली खिड़कियाॅ, पृष्ठ 19
  5. मैत्रेयी पुष्पा: विजन, पृष्ठ 116
  6. मैत्रेयी पुष्पा: कस्तूरी कुण्डल बसै, पृष्ठ 72
  7. संपादक, दया दीक्षित, मैत्रेयी पुष्पा: तथ्य एवं सत्य, पृष्ठ 18
  8. मैत्रेयी पुष्पा: चाक, पृष्ठ 43
  9. वही, पृष्ठ 22
  10. वही, पृष्ठ 22
  11. मैत्रेयी पुष्पा: त्रिया हठ
  12. हंस: जुलाई 1998 पृष्ठ 110
  13. वीरेन्द्र यादव, बेटी के दर्पण मे माॅं – हंस, अगस्त 2002 पृष्ठ 88
  14. हंस: अगस्त 2000 पृष्ठ 90
  15. विवेकानंद: भारतीय नारी, पृष्ठ 23-26
  16. मैत्रेयी पुष्पा: कस्तूरी कुण्डल बसै, पृष्ठ 199-200

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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