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सत्य

सत्य और असत्य का लेकर सदियों से विवाद होता रही है। कई मानते हैं कि सत्य पूर्ण है, जबकि कई इसे कोरी कल्पना मानते हैं, सत्य की परिभाषा ऐसी चीज़ है जो हमेशा मान्य होती है और उसे अमान्य साबित नहीं किया जा सकता। मैं भी सत्य को पूर्ण मानता हूं अतः गलत कार्य करना कदापि उचित नहीं है। सत्य वह पवित्रता है जो सही और गलत के बीच अंतर करती है। सत्य वह है जो तथ्यों से मेल खाता हो। सत्य सिर्फ इसलिए नहीं बदलता क्योंकि हम उसके बारे में कुछ सीखते हैं। कुछ का कहना है कि सत्य सापेक्ष है। मेरा मानना है कि सत्य एक व्यक्ति की मान्यताओं और निर्णयों के बारे में धारणा है। इस कारण से, सत्य व्यक्तियों के बीच उनकी विपरीत राय को पूरी तरह से अलग करता है। लेकिन, सच्चाई एक ऐसी चीज है जिसे हर कोई सही मानता है। इस प्रकार, यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि लोगों के मन में क्या सत्य है। इसके विपरीत, बुरे इरादे से बोला गया सत्य झूठ से भी बदतर माना जाता है। इसलिए सत्य एक अभिव्यक्ति, प्रतीक या कथन है जो वास्तविकता और खुशी से मेल खाता है। सत्य बोलना हमेशा अच्छा नहीं होता। यदि सत्य बोलने का उद्देश्य किसी को ठेस पहुँचाना हो तो वह सबसे भयानक असत्य झूठ से हीनतर माना जाता है। इसी कारण से हमें सत्य बोलते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उससे किसी दूसरे की भावना या रिश्ते को ठेस न पहुंचे। हमारे सामने समस्या यह है कि जब हम सत्य देखते हैं तो हमें सत्य बताने की इच्छा होती है। लेकिन, हमें दूसरों को आहत करने वाली निंदाओं को अस्वीकार किए बिना इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। इसलिए जब हम स्वतंत्र रूप से दूसरे के बारे में कठोर निर्णय व्यक्त करते हैं, तो हम वास्तव में अपने उन नकारात्मक गुणों के बारे में बात कर रहे होते हैं जो हमें सबसे अधिक परेशान करते हैं।

 डॉ.ए. राजशेखर प्राध्यापक (भूगोल विभाग)

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