चैता,चैती,और मधुमास
–डॉ.अजय कुमार शुक्ल
प्राध्यापक (हिन्दी विभाग)
ajay.shukla@kalingauniversity.ac.in
चाहे लोक हो या सभ्य,उसका मूल आधार उसकी अपनी लोकसंस्कृति होती है।लोकसंस्कृति का लोकगीत से गहरा अंतर्संबंध होता है। विविधता से भरी हुयी भारतीय लोकसंस्कृति में लोकगीतों की समृद्ध विरासत है।लोक गीत-संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, उनमें ऋतु के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है।‘चैती’/’चइता’ भी एक ऐसी ही विधा है, जो उत्तर भारत के पूरे अवधी-भोजपुरी क्षेत्र तथा बिहार एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्र के भोजपुरी-मगही-मिथिला क्षेत्र में सर्वाधिक लोकप्रिय है।
भारतवर्ष में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नए साल की शुरूआत होती है। यह नई फसल के घर आने का समय होता है।कृषि संस्कृति पर आधारित भारतवर्ष में यह आनंद, उल्लास और खुशी का समय होता है।इस महीने को ‘मधुमास’ के नाम से भी जाना जाता है।इसी महीने में चइता/चैती गाने की गौरवशाली परंपरा रही है।यहाँ सामूहिक रुप से गायन शैली को ‘चइता’ ,जबकि एकल गायन को ‘चैती’ के नाम से जाना जाता है।
ऐसी मान्यता भी है कि “चइता” और “चइती” दो विधाएँ हैं।चैत्र रामनवमी में भगवान राम के जन्म दिवस के अवसर पर ‘चइता’ गाया जाता है – “चईत में लिहले राम जी जनमवां झूला झूले ले ललनवा…ए रामा।इन गीतों की प्रत्येक पंक्ति के अंत में ‘रामा’,’हे रामा,अरे रामा’ लगाकर गाया जाता है। जैसे:- ‘चैत मास बोले रे कोयलिया, ओ #रामा…मोरे रे अंगनवा..”।या फिर- “चैत की निंदिया रे, अरे जियरा अलसाने हो रामा.. ‘कृष्ण जी के मोहक लीला प्रसंग का गायन होता है – “कान्हा चरावे धेनु गइया हो रामा, जमुना किनरवा।”जबकि ‘चैती’ श्रृंगारप्रधान गीत होते हैं।जिसमें पतझड़ की समाप्ति के बाद मौसम परिवर्तन का जिक्र होता है।जहाँ पेड़-पौधों और लताओं में नए फूल-पत्ती और कोपलों के आने के बाद खुशनुमा मौसम में नायक और नायिका के संयोग-वियोग के मनमोहक चित्र दिखलाई पड़ते हैं।जैसे सुप्रसिद्ध गायिका निर्मला देवी का गीत “एही ठैंयां मोतिया हेरानी हो रामा । ए ही ठैंयां ….।”
चैता/चैती के गीतों में संयोग एवं वियोग दोनों भावों की सुंदर व्यंजना सुनायी पड़ती हैं।मधुमास की संज्ञा से विभूषित चैत के महीने मे संयोग तो सुखद है ही लेकिन विरह व्याकुल प्रेमियों के लिए उतना ही दुखद है- “चैत बीति जयतइ हो रामा, तब पिया की करे अयतई।”यहाँ पर राम-कृष्ण के जन्म पर सुखद गीत होने के साथ-साथ प्रेमी या प्रेमिकाओं का इंतजार करते हुए नायक-नायिकाओं के असहनीय दुख का मार्मिक चित्र भी दिखलाई पड़ता है। हिन्दी साहित्य में चाहे विद्यापति हों –
“चैत हे सखी बेली फुलि गेल
फुलि गेल कुसुम गुलाब
ओहि फूलबा के हार गुथबितऊँ
मेजितऊँ पहुँजी के देस
हे कन्हैया के मनाय ने दीप…..”
मलिक मोहम्मद जायसी हो-
“चैत बसंता होइ धमारी,
मोहिं लेखे संसार उजारी।….
बौरे आम फरें अब लागे,
अबहुँ आउ घर ,कंत सभागे।।”
या फिर कबीर-
“पिया से मिलन हम जाएब हो रामा,
अतलस लहंगा कुसुम रंग सारी,
पहिर-पहिर गुन गाएब हो रामा।
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कैसे सजन घर जैबे हो रामा…।”
सभी ने अपनी रचनाओं में चैत महीने पर अपनी भावाभिव्यक्ति को व्यक्त किया है।
आमतौर से लोकगीत की अपनी मौखिक परंपरा होती है।वह शास्त्रीय परंपराओं से मुक्त होती है।किंतु चइता ऐसा लोकगीत है जिसे लोक के साथ शास्त्रीय तरीके से भी गाया जाता है।इसमें ताल पक्ष प्रधान होता है।यह 14 मात्रा के चाँचर ताल में गायी जाती है, जिसके बीच-बीच में कहरवा का प्रयोग होता है। 14 मात्रा के दीपचन्दी ताल का और गीत के अन्तिम हिस्से में कहरवा की लग्गी का प्रयोग होता है।यह छंद की बजाय लयप्रधान है।इसमें स्वरों का बहुलता से प्रयोग होता है।इसलिए इसे गाना बहुत आसान है।चाहे बिसमिल्लाह खान हो,विंध्यवासिनी देवी हो,छन्नुराम मिश्रा हो, सभी ने इस गायन/संगीत शैली को अपनाया और समृद्ध किया है।
इसकी लोकप्रियता को फिल्मी गीतों में भी महसूस किया जा सकता है।फिल्म ‘गोदान’ में पण्डित रविशंकर के संगीत निर्देशन में मुकेश ने चैती- ‘हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा गाया है | आशा भोसले ने फिल्म ‘नमकीन’ में चैती गाया है जिसके बोल हैं- ‘बड़ी देर से मेघा बरसे हो राम | इस प्रकार देखा जाए तो सिर्फ फिल्मों में ही नहीं बल्कि भिखारी ठाकुर,महेन्द्र मिश्रा से लेकर आज की पीढ़ी के लोकगायको ने चैती गीत परंपरा को लगातार समृद्ध किया है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमारी लोक संस्कृति में लोकगीतों का विशेष महत्व है।जिसकी सरलता,सहजता और माटी की सुगंध को महसूस कर लोक ही नहीं बल्कि सभ्य समाज भी भावविभोर हो उठता है।लेकिन वर्तमान परिदृश्य में अन्य पारंपरिक लोकगीतों की तरह चइता लोकगीतों की चमक-धमक कम होती चली जा रही है।आधुनिक युग में हमें अपनी नयी पीढ़ी तक लोकगीत के महत्व को बताते हुए इस अमूल्य विरासत को समृद्ध करते रहना है।