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आत्म अवलोकन और प्रेम

डॉ.अजय कुमार शुक्ल

प्राध्यापक (हिन्दी विभाग)

कलिंगा विश्वविद्यालय (छत्तीसगढ़)

ajay.shukla@kalingaunivesity.ac.in

 

ऐसा बहुत बार होता है कि जो चीज हमारे बहुत करीब होती है।उसकी तलाश में हम इधर-उधर भटकते रहते हैं।एक इंसान के रुप में हमारे मन में बहुमूल्य भाव छुपा हुआ होता है,जिसे जानने-समझने के बाद ही आत्मसंतुष्टि प्राप्त होती है।जिगर मुरादाबादी का एक मशहूर शेर है-

 

“ऐ परेशान नजरी,किसकी है तलाश,

अपने अंदर नहीं देखा  जाता,

और वह अंदर भी क्या देख सकेंगे,

जिसे बाहर नहीं देखा जाता..”

 

‘ईरान के बसरा की रहने वाली थी- ‘राबिया’। इस विदुषी महिला को प्रथम महिला सूफी संत होने का गौरव प्राप्त है।कठिन से कठिन बातों को सरलता से समझाने में उनका कोई जवाब नहीं था।इसीलिए लोग उनका बहुत सम्मान करते थें।एक बार वह अपनी झोपड़ी के बाहर कुछ खोज रही थीं।गांव के लोग उनकी बहुत इज्ज़त करते थें।लोगों ने पूछा कि क्या खो गया है?,उन्होंने बताया कि मेरी सुई खो गयी है।तब तक उनकी मदद के लिए पूरा गांव इकट्ठा हो गया।लोगों ने झोपड़ी के बाहर चप्पा-चप्पा खोज डाला लेकिन सुई नहीं मिली।

 

फिर किसी ने उनसे पूछा कि आपकी सुई कहाँ पर गिरी थी?उन्होंने बताया कि झोपड़ी के अ़ंदर गिर गयी थी।लोगों को उनके इस जवाब की अपेक्षा नहीं थी।लोग एक-दूसरे की तरफ हँसते हुए देखकर बोलने लगे कि अंदर गुम हुयी है तो आप बाहर क्यों खोज रही हैं? राबिया ने मासूमियत से बताया कि अंदर अंधेरा है।इसलिए बाहर खोज रही हूँ।लोग कहने लगे कि झोपड़ी के अंदर उजाला कर दो तो मिल जाएगी।जहाँ पर गिरी है,वो तो वहीं पर मिलेगी।उसे बाहर खोजने से क्या फायदा है ?

 

राबिया मुस्कुराते हुए कहती है कि अरे!तुम लोग तो बहुत समझदार हो।यही बात तो मैं तुम्हें समझाना चाहती थी कि आपका ईश्वर तो आपके अंदर है लेकिन आपके मन म़े असुरक्षा का,अज्ञान का और स्वार्थ का अंधकार फैला हुआ है। तभी तो आप उसे खोजने के लिए इधर-उधर भटकते-फिरते रहते हो।आप ही बताओ,वह कैसे मिल पाएगा?सच कहा जाए तो हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल की निर्गुण विचारधारा में स्पष्ट है कि आत्मज्ञान से ही ईश्वर को महसूस किया जा सकता है।हिंदी साहित्य के निर्गुणपंथ के प्रसिद्ध कवि ‘कबीर’, ईश्वर को ही अपना प्रेमपात्र बताते हैं और उसे याद करते-करते खुद को भी भूल जाते हैं –

 

“तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ।”

 

हिन्दी साहित्य के प्रख्यात विद्वान आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि श्रद्धा और प्रेम के संयोग से ही भक्ति की उत्पत्ति होती है।कहने का आशय यह है कि भक्ति की प्रथम सीढी प्रेम है।जब तक आप प्रेम को नहीं समझ पाएंगे,तब तक श्रद्धा और भक्ति को समझना बहुत दूर की कौड़ी है।जब तक आप स्वयं को नहीं समझेंगे,स्वयं से प्रेम नहीं करेंगे तब तक किसी अन्य के प्रति किया हुआ प्रेम मात्र दिखावा है।प्रत्येक सजग व्यक्ति को आत्मविश्लेषण,आत्ममूल्यांकन और आत्मअवलोकन  करके अपनी कमियों को सुधारने की कोशिश करते रहना चाहिए। जिससे आप एक आदर्श व्यक्तित्व साबित होंगे और समाज में सभी वर्ग के लोगों के प्रेमपात्र बनेंगे।प्रेम करने के लिए पाने और खोने की इच्छा से परे  त्याग और बलिदान की भावना के साथ स्वार्थरहित होना महत्वपूर्ण शर्त है। बाह्य आकर्षण से प्रभावित होकर सिर्फ पाने की लालसा रखेंगे तो आप स्वार्थी हैं।प्रेम का स्वरुप जब आपके मन में घुलमिल जाए,तभी आप प्रेमी होने के हकदार हैं। उर्दू के एक प्रसिद्ध शायर सालिम सलीम साहब कहते हैं कि –

 

“अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे,

मिरे अंदर से सभी रंग तुम्हारे निकले।”

 

कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि पहले अपने मन को जानिए- समझिए,वहीं पर आपके कोमल संवेदना रुपी प्रेम छुपा हुआ है,वहीं ज्ञान है और वही आपका ईश्वर है।आत्म अवलोकन के पश्चात और ज्ञान रुपी ईश्वर से साक्षात्कार के उपरांत ही आप इस संसार और सांसारिक लोगों से सच्चा प्रेम कर कर सकते हैं।

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